Wednesday, December 31, 2008

भारतेन्दु

सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो !
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीन हो !

दोनों हाथ उलीच संपदा बने दलीदर
सिंह, तुम्हारी चर्चा सुन चिढ़ते थे गीदर
धनिक वंश में जनम लिया, कुल कलुख धो गये
निज करनी-कथनी के बल भारतेन्दु हो गये
जो कुछ भी जब तुमने कहा, कहा बूझकर जानकर !
प्रियवर, जनमन के बने गये, जन-जन को गुरु मानकर !

बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का

"न किसी की आँख का नूर हूँ"

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ाँ में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

पये फ़ातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढाये क्यूँ
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँफ़िशाँ मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुख की पुकार हूँ

ज़फ़र

"मातृभाषा प्रेम पर दोहे"

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।


अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।


सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

भारतेंदु हरिश्चंद्र

"मीरा बाई"

देखत राम हंसे सुदामाकूं देखत राम हंसे॥

फाटी तो फूलडियां पांव उभाणे चरण घसे।
बालपणेका मिंत सुदामां अब क्यूं दूर बसे॥

कहा भावजने भेंट पठाई तांदुल तीन पसे।
कित गई प्रभु मोरी टूटी टपरिया हीरा मोती लाल कसे॥

कित गई प्रभु मोरी गउअन बछिया द्वारा बिच हसती फसे।
मीराके प्रभु हरि अबिनासी सरणे तोरे बसे॥

शब्दार्थ :- राम = यहां श्रीकृष्ण से आशय है। साथी =सखा। फूलडियां =ज्योतियां घिस्या =घिस गये। उभाड़ै = फूल गये। पठाई = भेजी। तान्दुल =चांवल। टपरिया = झोंपड़ी। हसती = हाथी।

Tuesday, December 30, 2008

"ग़ालिब"

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता

हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ाँनों पर धरा होता

हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या होता

Sunday, December 28, 2008

"एकंम-सत्य"

"जब अज्ञान के कारन द्वेत भावः रहता है ,तब सब कुछ आत्मा से अलग दिखाई देता है।
जब यह ज्ञान हो जाता है कि सब कुछ आत्मा ही है ,तब एक अनु भी आत्मा से अलग
दिखाई नही देता । सत्य का ज्ञान पर्कट होते ही शरीर के मिथ्यातव के कारन हुए
कर्मो के फल भोगने के लिए शेष नही रह सकते ,जेसे जागने पर स्वपन का अस्तित्व
नही रहता । आदि शंकराचार्य

"उमर ख़ैयाम"

सुहसनी, विधुवदनी
तेरी आभा है अक्षय
प्रियदेख,हो रहा चंदरमा उदय
स्वच गगन पर पुन: उदय
होगा कितनी बार आज के
बाद यह उदय इसी प्रकार
और इसी झूर-मु मे मुझको
खोज-खोज जाएगा हार

Saturday, December 27, 2008

"शासन"

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक

नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक

बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक

धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
नागार्जुन

"सत्य- कविता"

"दो रुपये के पाँच"

सुबह का समय, पूलिस का जवान
मेरी गाढ़ी मे बेठा श्री मान
सफ़र किया ,किराया दिया
दो-ऱू खुले थे मेरे पास, बोला
तुम बहन..... से ही करते हॉ
मे बोला,सर तलाशी ले लो.....
साले...... ज़ुबान चलाता हे
पाँच मा मेरे लगाए.......
मे मे राम से बोला.......
क्या कसूर मेरा जो पिटवाया.......
मे गाढी से बाहर आया...
पूलिस वाले को एक पंच लगाया
वो नीचे ज़मीन आया
मे राम से बोला प्रभु कमाल ......
बोले ...नही ये तेरा किया .....
अगर मे करता तो यह जिंदा होता....
इतने मे एक रिक्शा वाला बोला भा....
कोई और पूलिस वाला आया तो पीट जाएगा
मे ....गोली.... राम बोले सत की कमाई...
अब समझ मे आई.... हराम की खाने वाले
कभी सत के सामने ....जीत पाएँगे
तेरे को मारने से पहले राम.........मे बोला नही....प्रभु

" कौन"

कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है अटल बिहारी वाजपेयी

"पथ"

आओ, हम पथ से हट जाएँ!


युवती और युवक मदमाते,

उत्‍सव आज मनाने आते,

लिए नयन में स्‍वप्‍न, वचन में हर्ष, हृदय में अभिलाषाएँ!

आओ, हम पथ से हट जाएँ!


इनकी इन मधुमय घड़‍ि‍यों में,

हास-लास की फुलझड़‍ियों में,

हम न अमंगल शब्‍द निकालें, हम न अमंगल अश्रु बहाएँ!

आओ, हम पथ से हट जाएँ!


यदि‍ इनका सुख सपना टूटे,

काल इन्‍हें भी हम-सा लूटे,

धैर्य बंधाएँ इनके उर को हम पथिको की करुण कथाएँ!

आओ, हम पथ से हट जाएँ! हरिवंशराय बच्चन

"शिव-अल्ला"

सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने

अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने

तंग आके आख़िर मैं ने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें


शक्ती भी शान्ती भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ती प्रीत में है
इक़बाल

Friday, December 26, 2008

"मोला"

देखा तेरा इंसाफ़.......मोला
मर रहा था इंसान मोला
मार रहा था इंसान मोला
रो-रहा था इंसान मोला
देवता-शेतान दोनो हैवान......मोला
ये डरे-से रहे हें हार मोला
खुद रहे, हमे क्या मारेंगे मोला
मस्जिद की नमाज़,जीसस की प्राथना
गुरुदवारे का पाठ, मंदिर की आरती
इंसान रहे जीत मोला ........."मोला"
नया साल आने को,दे हस्ने का तोफा मोला

"गोबिंद सदन"

महरौली,छत पूर से किलो मीटर पूर
" बिना दीवार के" वा "का घर"
कई एकर मैं फैला......
गुरु वारा ,मंदिर, मस्जिद और गिरिजा घर,
एक आँगन मैं गले मिलते हुए ...........
साथ मैं ओरगनिक खेती ,आप ताज़ा सब्जी खरीद
और खेत मैं घूमने का आनंद..............
ताज़ा हवा और एक नया एहसास .........गोबिंद के प्रति .
न्यवाद

Thursday, December 25, 2008

" संत लल्ला योगेश्वरी"

कश्मीर से शिव भक्त ,नगन रहयी थी.
पूछा क्यों रहती हो......तो तीखे स्वर मैं बोली क्यों ना रहूं
मुझे तो आस पास कोई मर्द नही दिखाई देता.
...............दुख का कों सा विष मैने नही पिया ?
अनगणित जीवन-मृतयूके फेरो मैं अपने
...श्वास नियमन से पिए जाने वाले
मेरे याले मैं,अब अमृत के सिवा कुछ भी नही.....
अनुवाद योग नन्दा परम हंस

"मुस्कान"

सूदामा ,सच बोल क्या .......... कृष्ण
के महल पर तेरा स्वागत हुआ था या.........
कृष्ण ने भी तुझे दुतकार दिया था..........
सूदामा मुस्कराया, चुप रहा ...........
अगर तुझे महल,हीरे दिए..........फिर
तेरे पेट,मुँह पर गड़े आँखे काली क्यो........
सूदामा सच बोल...........
तू ही बोल कृष्ण.............
सूदामा कुछ बोला, मुस्कराया ........
आँखे झुका ली...........
कृष्ण कुछ मुस्कराया ,बुदबुदाया.......
आँखे चुरा ली.............
आज दोनो कुछ बोले क्या

"कविता"

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। हरिवंशराय बच्चन