सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो !
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीन हो !
दोनों हाथ उलीच संपदा बने दलीदर
सिंह, तुम्हारी चर्चा सुन चिढ़ते थे गीदर
धनिक वंश में जनम लिया, कुल कलुख धो गये
निज करनी-कथनी के बल भारतेन्दु हो गये
जो कुछ भी जब तुमने कहा, कहा बूझकर जानकर !
प्रियवर, जनमन के बने गये, जन-जन को गुरु मानकर !
बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का